घर वापसी

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घर से निकले हो जो जल्दबाज़ी में

किस्से ढूँढते फिरोगे किसी जिलदसाजी में

तुम्हारे बच्चे तुमसे माँगेंगे

अपने पुरखों का हिसाब

वो घर वो गली वो खेत

जहां उगते थे गुलाब

तुम कच्चा पक्का बताओगे

जितना याद होगा

वो और पूछेंगे

तुम्हें खीझ आएगी

और वक्त होगा बर्बाद

फिर एक दिन वो ढूँढने

निकल जाएँगे

अपने दादा परदादा की ज़मीनें

उनके बाप ने जो

बेफ़िक्री में खो दिए थे

वो नगीने

उनको चाह होगा

जैसे एक मुसलमान का

मदीना जाना

लेकिन बंदिशें

जैसे गुलज़ार साहब का ‘दिना’ जाना

वो गालियाँ ढूँढ लेंगे

नयी पुरानी दीवारें देख लेंगे

मिट्टी की ख़ुशबू से आती हुई

बहारें देख लेंगे

उसी गली में कोई

एकांत सा कोना देखकर

वो रोना चाहेंगे

मगर रो ना पाएँगे

दरवाज़े खुले मिलेंगे

पकवान बनेंगे

लोग गले मिलेंगे

वो उनका होना चाहेंगे

मगर हो ना पाएँगे!

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